बस्ती। इमाम हुसैन के मानने वालों ने अश्कबार आखों से कर्बला के शहीदों को अलविदा कहा। रविवार को दसवी मोहर्रम के अवसर पर इमामबाड़ों व चौक पर पहुंचकर अकीदतमंदों ने नजरानए अकीदत पेश किया। कोविड प्रोटोकॉल का पालन करते हुए लोग इमामबाड़ों में हाजिरी के लिए पहुंच रहे थे। किसी सार्वजनिक कार्यक्रम का आयोजन नहीं किया गया। दसवी को निकलने वाला ताजिए का जुलूस भी नहीं निकाला गया। लोगों ने घरों में रहकर जिक्रे कर्बला किया और आंसू बहाए।
इमामबाड़ा शाबान मंजिल, खुर्शीद मंजिल, सगीर हैदर रिजवी, लाडली मंजिल, रियाजुल हसन, मुस्तफा हुसैन, एजाज हुसैन सहित अन्य इमामबाड़ों में पहुंचे लोगों ने नज्र व फातिहे के साथ चादर चढ़ाई। कुछ लोगों ने कर्बला के शहीदों की याद में नौहा व सलाम पेश किया। सोग में लोग काले कपड़े पहने हुए थे।
हुसैनी मस्जिद के इमाम जनाब अली हसन ने बताया कि तकरीबन चौदह सौ साल पहले इराक के कर्बला शहर में हुई इमाम हुसैन व उनके 72 साथियों की कुर्बानी की याद पूरी दुनिया में मनाई जाती है। भारत में इसका महत्व ज्यादा बढ़ जाता है। इमाम को जब यजीदी फौज ने घेर लिया तो इमाम ने अमन व शांति की अपील के साथ कहा था कि मुझे हिन्दोस्तान चले जाने दो। वहां के लोग नेक और मेहमानों की इज्जत करने वाले हैं। खून के प्यासे यजीदियों ने एक न सुनी। छह माह के अली असगर से लेकर 80 साल के इमाम के साथी हबीब को बेदर्दी से शहीद कर डाला गया।
मौलाना अब्दुल हलीम ने बताया उनके आवास पर आयोजित मजलिस में बयान फरमाते हुए मौलाना फजले रहमान चिश्ती ने कहा कि अगर कर्बला की घटना न हुई होती तो हमें हक व बातिल की तमीज नहीं हो पाती। शरीयत में सही व गलत की पहचान मुश्किल हो जाती। हाफिज रिजवान मंसूरी के कहा कि अली से मोहब्बत वही रखेगा जो मोमिन होगा व बुग्ज वही रखेगा जो मुनाफिक होगा।